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विषयसूची
सामान्य अध्ययन-II
1. किसी विधायक को निलंबित करने की अधिकतम सीमा
2. डाक मतपत्र के माध्यम से मतदान
3. दिल्ली सरकार का ‘देश के मेंटर कार्यक्रम’
4. अंतर-धार्मिक विवाह संबंधी कानून को चुनौती
5. वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने संबंधी याचिका
सामान्य अध्ययन-III
1. छठा सामूहिक विलोपन
प्रारम्भिक परीक्षा हेतु तथ्य
1. नेट जीरो बिल्डिंग
2. कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव्स कमीशन
सामान्य अध्ययन-II
विषय: विभिन्न संवैधानिक पदों पर नियुक्ति और विभिन्न संवैधानिक निकायों की शक्तियाँ, कार्य और उत्तरदायित्व।
किसी विधायक को निलंबित करने की अधिकतम सीमा
(For how long can an MLA be suspended?)
संदर्भ:
हाल ही में, महाराष्ट्र के 12 बीजेपी विधायकों ने विधानसभा से एक साल के लिए निलंबित किए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है।
- सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की है है, विधायकों को पूरे एक साल के लिए निलंबित किया जाना प्रथम दृष्टया असंवैधानिक है, और “निष्कासन से भी बदतर” है।
- इन विधायकों को ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (OBCs) से संबंधित आंकड़ों के खुलासे को लेकर विधानसभा में दुर्व्यवहार करने पर निलंबित कर दिया गया था।
निलंबित विधायकों का तर्क?
जुलाई 2021 में, महाराष्ट्र के संसदीय कार्य मंत्री अनिल परब द्वारा इन 12 भाजपा विधायकों को निलंबित करने संबंधी एक प्रस्ताव पेश किया गया था। निलंबित विधायकों का तर्क है, कि विधानसभा सदस्यों का निलंबन सदन के नियमों के तहत ‘पीठासीन अधिकारी’ ही कर सकता है।
- इनके द्वारा याचिका में कहा गया है कि यह निलंबन “बेहद मनमाना और असंगत” है।
- निलंबन के खिलाफ चुनौती मुख्यतः ‘प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को नकारने’ और ‘निर्धारित प्रक्रिया के उल्लंघन’ के आधार पर दी गयी है।
- इन 12 विधायकों का कहना है, कि इनके लिए अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया और इनका निलंबन, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत ‘विधि के समक्ष समानता’ के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
विधायकों के निलंबन हेतु अपनाई जाने वाली प्रक्रिया:
महाराष्ट्र विधान सभा नियमावली के नियम 53 के तहत, विधान सभा सदस्यों को निलंबित करने की शक्ति का प्रयोग केवल विधानसभा अध्यक्ष द्वारा ही किया जा सकता है, और अध्यक्ष के इस निर्णय को मतदान के लिए नहीं रखा जा सकता है।
- नियम 53 के अनुसार, “किसी सदस्य द्वारा विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय का अनुपालन करने से इंकार किए जाने पर, अथवा अध्यक्ष की राय में किसी सदस्य द्वारा पूर्णतयः नियम-विरुद्ध व्यवहार किए जाने पर, अध्यक्ष उस विधायक को तत्काल विधानसभा से बाहर निकल जाने का निर्देश दे सकता है।
- उक्त विधानसभा सदस्य “उस दिन के सत्र की शेष अवधि के दौरान बैठक में भाग नहीं लेगा”।
- यदि किसी सदस्य को एक ही सत्र में दूसरी बार सदन से बाहर निकलने का आदेश दिया जाता है, तो विधानसभा अध्यक्ष, उस सदस्य को “चालू सत्र की शेष अवधि के लिए सदन से अनुपस्थित रहने का निर्देश दे सकता है” इस प्रकार का निर्देश चालू सत्र की अवधि तक ही लागू रहेगा।
राज्य सरकार द्वारा अपने निर्णय के पक्ष में दिए जाने वाले तर्क:
- अनुच्छेद 212 के तहत, अदालतों को विधायिका की कार्यवाही की जांच करने का अधिकार नहीं है।
- अनुच्छेद 212 (1) के अनुसार, “राज्य के विधान-मंडल की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को, प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा”।
- अनुच्छेद 194 के तहत, विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी सदस्य को सदन की अंतर्निहित शक्तियों के माध्यम से निलंबित किया जा सकता है।
इस प्रकार, राज्य सरकार ने यह मानने से इंकार किया है, कि “किसी सदस्य को निलंबित करने की शक्ति का प्रयोग केवल विधानसभा के नियम 53 के माध्यम से ही किया जा सकता है”।
निलंबन की अवधि पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्यक्त चिंताएं:
- यदि निलंबित विधायकों के निर्वाचन क्षेत्रों का पूरे एक साल तक विधानसभा में ’प्रतिनिधित्व’ नहीं रहेगा, तो संविधान का मूल ढांचा प्रभावित होगा।
- संविधान का अनुच्छेद 190 (4) में कहा गया है, कि “यदि किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का कोई सदस्य ‘साठ दिनों की अवधि तक’ सदन की अनुमति के बिना, सदन की सभी बैठकों से अनुपस्थित रहता है, तो सदन उसकी सीट को रिक्त घोषित कर सकता है।“
- जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 151 (A) के तहत, “किसी भी रिक्ति को भरने के लिये, रिक्ति होने की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर वहाँ एक उप-चुनाव कराया जाएगा”। इसका मतलब है कि इस धारा के तहत निर्दिष्ट अपवादों को छोड़कर, कोई भी निर्वाचन क्षेत्र छह महीने से अधिक समय तक प्रतिनिधि के बिना नहीं रह सकता है।
उच्चतम न्यायालय के अनुसार, अतः एक वर्ष का निलंबन प्रथम दृष्टया असंवैधानिक था, क्योंकि यह छह महीने की सीमा से अधिक है और इस तरह “केवल सदस्य को नहीं बल्कि पूरे निर्वाचन क्षेत्र को दंडित करने के समान है”।
संसद सदस्य के निलंबन की अवधि संबंधी नियम:
- लोकसभा में ‘प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन विषयक नियमों’ के अंतर्गत, किसी सदस्य को ‘पूर्णतयः नियम-विरुद्ध आचरण’ करने पर सदन से बाहर निकाले जाने अथवा सदन के नियमों का दुरुपयोग करने या कामकाज में जानबूझकर बाधा उत्पन्न करने पर निलंबित करने संबंधी प्रावधान किए गए हैं।
- इन नियमों के अनुसार, उक्त सदस्यों को अधिकतम “लगातार पांच बैठकों या शेष सत्र के लिए, जो भी कम हो” की अवधि के लिए निलंबित किया जा सकता है।
- राज्यसभा के नियम 255 और 256 के तहत भी निलंबन की अधिकतम सीमा शेष सत्र की अवधि से अधिक नहीं हो सकती है। हाल ही में, कई सदस्यों का निलंबन ‘चालू सत्र के बाद’ समाप्त हो गया है।
इसी तरह के नियम, राज्य विधानसभाओं और विधान परिषदों में भी लागू होते हैं, जिनके अनुसार, निलंबन की अधिकतम सीमा शेष सत्र की अवधि से अधिक नहीं हो सकती है।
प्रीलिम्स लिंक:
- सांसदों को निलंबित करने व निलंबन रद्द करने संबंधी शक्तियां।
- इस संबंध में लोकसभा और राज्यसभा की प्रक्रियाओं में अंतर।
- सांसदों के निर्वाचन के संबंध में अपील।
- इस संबंध में नियम।
मेंस लिंक:
सांसदों के अनियंत्रित व्यवहार का समाधान दीर्घकालिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप होना चाहिए। टिप्पणी कीजिए।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
विषय: जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ।
डाक मतपत्र के माध्यम से मतदान
संदर्भ:
‘भारत निर्वाचन आयोग’ द्वारा पत्रकारों को ‘डाक मतपत्र’ / ‘पोस्टल बैलेट’ (Postal Ballot) सुविधा के माध्यम से वोट डालने की अनुमति प्रदान कर दी है।
अपनाई जाने वाली प्रक्रिया:
डाक मतपत्र द्वारा मतदान करने के इच्छुक ‘अनुपस्थित मतदाता’ (Absentee Voter) को सभी आवश्यक विवरण देते हुए ‘रिटर्निंग ऑफिसर’ (RO) के समक्ष एक आवेदन करना होगा और संबंधित संगठन द्वारा नियुक्त नोडल अधिकारी से इस आवेदन का सत्यापन करवाना होगा।
‘पोस्टल बैलेट सुविधा’ का विकल्प चुनने वाला कोई भी मतदाता, मतदान केंद्र पर वोट नहीं डाल पाएगा।
वर्तमान में, निम्नलिखित मतदाताओं को भी डाक मतपत्र के माध्यम से वोट डालने की अनुमति है:
- सेवा मतदाता (सशस्त्र बल, किसी राज्य का सशस्त्र पुलिस बल और विदेश में तैनात सरकारी कर्मचारी),
- चुनाव ड्यूटी पर तैनात मतदाता,
- 80 वर्ष से अधिक आयु के मतदाता या विकलांग व्यक्ति (PwD),
- निवारक तौर पर नजरबंद मतदाता।
‘डाकपत्र के माध्यम से मतदान’ क्या होता है?
‘डाकपत्र के माध्यम से मतदान’ अर्थात ‘पोस्टल वोटिंग’ (Postal Voting) का उपयोग कुछ सीमित मतदाताओं के समूहों द्वारा किया जा सकता है। इस सुविधा के माध्यम से, मतदाता मतपत्र पर अपनी पसंद अंकित कर तथा मतगणना से पहले इसे चुनाव अधिकारी के लिए वापस भेजकर दूर से ही मतदान कर सकता है।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951:
‘जन प्रतिनिधित्व अधिनियम’ (Representation of the People Act), 1951 के तहत भारत में चुनावों के वास्तविक संचालन हेतु प्रावधान किये गए हैं। यह निम्नलिखित मामलों से संबंधित है:
- संसद एवं राज्य विधानसभाओं के दोनों सदनों के सदस्यों की योग्यता और निर्हरता जैसे विवरण,
- चुनाव कराने के लिए प्रशासनिक मशीनरी,
- राजनीतिक दलों का पंजीकरण,
- चुनाव का संचालन,
- चुनावी विवाद,
- भ्रष्ट आचरण और चुनावी अपराध, और
- उपचुनाव।
प्रीलिम्स लिंक:
- ‘पोस्टल वोटिंग’ क्या होती है?
- ‘पोस्टल वोटिंग’ कौन कर सकता है?
- डाक मतदान से संबंधित मामले कौन तय कर सकता है?
- भारत निर्वाचन आयोग की भूमिका।
- क्या ‘मतदान का अधिकार’ संवैधानिक अधिकार है?
मेंस लिंक:
डाकपत्र के माध्यम से मतदान की सुविधा और संबंधित लाभों पर चर्चा कीजिए।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
विषय: स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित विषय।
दिल्ली सरकार का ‘देश के मेंटर कार्यक्रम’
संदर्भ:
हाल ही में, दिल्ली सरकार के प्रमुख कार्यक्रम ‘देश के मेंटर’ (Desh ke Mentor) को लेकर विवाद छिड़ गया है।
संबंधित प्रकरण:
हाल ही में, ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ (NCPCR) ने दिल्ली सरकार को ‘देश के मेंटर’ नामक अपने प्रमुख कार्यक्रम को “बच्चों की सुरक्षा से संबंधित सभी खामियों को दूर किए जाने तक’ स्थगित करने की सिफारिश की है।
‘देश के मेंटर’ कार्यक्रम:
अक्टूबर 2021 में शुरू किए गए इस कार्यक्रम का उद्देश्य कक्षा IX से XII के छात्रों को स्वैच्छिक परामर्शदाताओं (Mentors) से जोड़ना है।
- इस कार्यक्रम को ‘दिल्ली टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी’ की एक टीम द्वारा निर्मित ‘ऐप’ के माध्यम से संचालित किया जाता है। इस ‘ऐप’ के माध्यम से 18 से 35 वर्ष की आयु के लोग परामर्शदाता / मेंटर बनने के लिए साइन अप कर सकते हैं और आपसी हितों के आधार पर छात्रों से जुड़ सकेंगे।
- ‘मेंटरशिप’ के तहत ये मेंटर निर्दिष्ट छात्र के लिए कम से कम दो महीने तक नियमित फोन कॉल के माध्यम से सलाह प्रदान करेंगे, जिसे वैकल्पिक रूप से अगले चार महीनों तक जारी रखा जा सकता है।
इस कार्यक्रम का महत्व:
- ‘देश के मेंटर’ कार्यक्रम के पीछे मुख्य विचार यह है कि, युवा परामर्शदाता, उच्च शिक्षा और करियर विकल्पों को चुनने, उच्च शिक्षा प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने तथा इन सब के दबाव से निपटने में छात्रों का मार्गदर्शन करेंगे।
- अब तक 44,000 लोग, मेंटर के रूप में साइन अप कर चुके है और ये 76 लाख छात्रों के साथ काम कर रहे हैं।
इसकी प्रक्रिया को लेकर ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ की चिंताएं:
‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ (NCPCR) द्वारा कार्यक्रम के संबंध में पांच प्रमुख बिंदुओं पर चिंता व्यक्त की गयी है:
- दुर्व्यवहार से सुरक्षा: NCPCR का कहना है, कि बच्चों के लिए समान-लिंगी मेंटर को नियुक्त करना, अनिवार्यतः, दुर्व्यवहार से उनकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करता है।
- पुलिस सत्यापन का अभाव: आयोग ने ‘मेंटर’ का पुलिस सत्यापन नहीं किए जाने पर भी चिंता व्यक्त की है।
- ‘मेंटर’ के साइकोमेट्रिक टेस्ट (Psychometric Test) पर विभिन्न चिंताएं।
- आयोग का कहना है, छात्र एवं मेंटर के बीच बातचीत को ‘फोन कॉल’ तक ही सीमित करना भी बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करता है, क्योंकि “बच्चों से संबंधित अपराध फोन कॉल के माध्यम से भी शुरू किए जा सकते हैं।”
- NCPCR के अनुसार, यद्यपि इस कार्यक्रम को शुरू करने हेतु माता-पिता की पूर्व-सहमति लेना एक आवश्यक शर्त है, फिर भी “बच्चों को ऐसी स्थिति से बचाने की जिम्मेदारी और जवाबदेही विभाग की है। किसी भी अप्रिय घटना की स्थिति में ‘माता-पिता की सहमति’ को बहाने के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
विषय: सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय।
अंतर-धार्मिक विवाह संबंधी कानून को चुनौती
संदर्भ:
हाल ही में, देश में ‘अंतर-धार्मिक विवाहों’ (Inter-Faith Marriages) को नियंत्रित करने वाले कानून, ‘विशेष विवाह अधिनियम’ 1954 (Special Marriage Act – SMA) 1954 को अदालत में चुनौती दी गयी है। याचिकाकर्ताओं का कहना है, कि इस अधिनियम के तहत विवाह करने वाले युवा दंपतियों का जीवन खतरे में पड़ जाता है।
इस क़ानून के कई प्रावधानों को रद्द करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक रिट याचिका दायर किए जाने के एक साल से अधिक समय बीत चुका है, किंतु सरकार ने अभी तक इस पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी है।
संबंधित प्रकरण:
- याचिका में, विवाह पंजीकरण से पहले सार्वजनिक सूचना प्रकाशित करने का प्रावधान करने वाली ‘विशेष विवाह अधिनियम’ (SMA) की धारा 6 और 7 को, अतर्कसंगत तथा मनमाना बताते हुए, रद्द करने की मांग की गई है।
- याचिकाकर्ता का तर्क है, कि 30 -दिन की अवधि, दंपति के परिजनों के लिए अंतर-जातीय या अंतर-धर्म विवाह को हतोत्साहित करने का मौका प्रदान करती है।
‘विशेष विवाह अधिनियम’, 1954:
‘विशेष विवाह अधिनियम’ (Special Marriage Act – SMA) एक ऐसा कानून है, जो बिना किसी धार्मिक रीति-रिवाजों या परम्पराओं के विवाह करने की अनुमति देता है।
- विभिन्न जातियों या धर्मों अथवा राज्यों के लोग विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह करते हैं, तथा इसमें पंजीकरण के माध्यम से विवाह किया जाता है।
- इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य अंतर-धार्मिक विवाह संपन्न करना तथा सभी धार्मिक औपचारिकताओं को अलग करते हुए विवाह को एक धर्मनिरपेक्ष संस्थान के रूप स्थापित करना है, जिसमे विवाह हेतु मात्र पंजीकरण की आवश्यकता होती है।
विशेष विवाह अधिनियम के तहत प्रक्रिया:
विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act- SMA) के अंतर्गत विवाह पंजीकृत करने के लिए विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की गयी है।
- विवाह के लिए इच्छुक पक्षकारों में से एक व्यक्ति को जिले के विवाह-अधिकारी एक सूचना देनी होती है, और इसके लिए विवाह हेतु आवेदन करने वाले पक्षकार को, नोटिस दिए जाने की तिथि से, जिले में तीस दिनों से अधिक समय से निवास करना आवश्यक होता है।
- विवाह हेतु दी जाने वाली सूचना को, विवाह अधिकारी, विवाह-सूचना रजिस्टर में दर्ज करेगा तथा प्रत्येक ऐसी सूचना की एक प्रतिलिपि अपने कार्यालय के किसी सहजदृश्य स्थान पर लगवायेगा।
- विवाह अधिकारी द्वारा प्रकाशित, विवाह सूचना में पक्षकारों के नाम, जन्म तिथि, आयु, व्यवसाय, माता-पिता के नाम और विवरण, पता, पिन कोड, पहचान की जानकारी, फोन नंबर आदि सम्मिलित होते हैं।
- इसके पश्चात, अधिनियम के तहत प्रदान किए गए विभिन्न आधारों पर कोई भी विवाह पर आपत्ति उठा सकता है। यदि 30 दिनों की अवधि के भीतर कोई आपत्ति नहीं उठाई जाती है, तो विवाह संपन्न किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति विवाह पर आपत्ति करता है, तो विवाह अधिकारी इसकी जांच करेगा, तदुपरांत वह विवाह के संबंध में निर्णय लेगा।
आलोचनाएं:
- परिवार द्वारा बलप्रयोग रणनीति के प्रति असुरक्षित
- निजता का उल्लंघन
- धर्म-परिवर्तन का दबाव
प्रीलिम्स लिंक:
- विशेष विवाह अधिनियम के उद्देश्य
- विशेष विवाह अधिनियम की धारा 5 और 6
- विवाह के पंजीकरण हेतु अधिनियम के तहत प्रमुख आवश्यकताएं
- विवाह अधिकारी द्वारा प्रकाशित विवरण
- संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का अवलोकन
मेंस लिंक:
विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के विवादास्पद प्रावधान कौन से हैं? इस कानून की समीक्षा की आवश्यकता क्यों है? चर्चा कीजिए।
स्रोत: द हिंदू।
विषय: सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय।
वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने संबंधी याचिका
संदर्भ:
दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा ‘भारतीय दंड संहिता’ की धारा 375 के तहत निर्धारित ‘अपवाद’ को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई की जा रही है। इस ‘अपवाद’ अथवा ‘छूट’ के तहत, यदि पत्नी की आयु 15 वर्ष से अधिक है, तो पति द्वारा जबरन यौन संबंध बनाने को ‘बलात्कार’ का अपराध नहीं माना जाता है। इस छूट को “वैवाहिक बलात्कार अपवाद” (Marital Rape Exception) के रूप में भी जाना जाता है।
संबंधित प्रकरण:
- वैवाहिक बलात्कार (Marital Rape) को अपराध घोषित करने की मांग करते हुए, दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष दायर याचिकाएं, वर्ष 2012 में हुई ‘निर्भया सामूहिक बलात्कार’ की भयानक घटना के उपरांत गठित न्यायमूर्ति ‘जेएस वर्मा कमेटी’ ( S. Verma Committee) की ऐतिहासिक रिपोर्ट पर सरकार द्वारा ध्यान नहीं देने का परिणाम हैं।
- सरकार ने कई मौकों कह चुकी है, कि इस तरह के निर्णय से ‘विवाह संस्था’ खतरे में पड़ जाएगी, किंतु विशेषज्ञों के अनुसार, ‘निजता के अधिकार’ सहित शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए हाल के फैसलों ने सरकार के इस तर्क को अस्थिर कर दिया है।
वर्मा कमेटी की प्रमुख सिफारिशें:
जस्टिस वर्मा कमेटी ने क़ानून से ‘वैवाहिक बलात्कार अपवाद को हटाए जाने’ की अनुशंसा की थी, और कहा था कि कानून के लिए यह निर्दिष्ट करना चाहिए, कि “अपराधी एवं पीड़ित के बीच वैवाहिक या अन्य संबंध, बलात्कार या यौन-हिंसा के अपराधों से बचने का कानूनी आधार नहीं है”।
वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के खिलाफ सरकार के तर्क:
- सरकार ने अदालत के समक्ष दायर अपने हलफनामे में कहा है, कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ‘वैवाहिक बलात्कार’, ‘विवाह संस्था को अस्थिर करने वाली’ घटना तथा ‘पतियों को परेशान करने का एक आसान साधन’ नहीं बने।
- सरकार ने इसमें आगे कहा है, “जो यौन-संबंध पत्नी के लिए वैवाहिक बलात्कार प्रतीत हो सकते हैं, हो सकता है कि वह दूसरों को ऐसा नहीं लगे।”
सरकार के इस दृष्टिकोण पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाने वाले हालिया फैसले:
- ‘इंडिपेंडेंट थॉट बनाम भारत संघ’ (Independent Thought vs. Union of India) मामले में अक्टूबर 2017 का फैसला। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ‘नाबालिग पत्नी के साथ बलात्कार’ को अपराध घोषित कर दिया था।
- न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (सितंबर 2018) मामले में, शीर्ष अदालत ने सर्वसम्मति से संविधान द्वारा गारंटीकृत प्रत्येक व्यक्ति की ‘निजता के मौलिक अधिकार’ को मान्यता प्रदान की थी।
- ‘जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ मामला (अक्टूबर 2018)। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की खंडपीठ द्वारा ‘व्यभिचार’ (Adultery) को अपराध घोषित करते हुए इसकी भर्त्सना की थी।
इस संदर्भ में पूर्ण निरीक्षण एवं सुधार की आवश्यकता:
‘वैवाहिक बलात्कार अपवाद’ (Marital Rape Exception) की उत्पत्ति ‘ब्रिटिश ताज के समक्ष मुकद्दमों का इतिहास’ / ‘हिस्ट्री ऑफ़ प्लीस ऑफ़ द क्राउन’ (History of the Pleas of the Crown) नामक इंग्लैंड के ‘आपराधिक कानून पर लिखित’ महत्वपूर्ण ग्रंथ में निहित है।
- इस पुस्तक में तत्कालीन ब्रिटिश मुख्य न्यायाधीश मैथ्यू हेल ने 1736 में कहा था, “पति अपनी वैध पत्नी के साथ खुद बलात्कार करने के मामले में दोषी नहीं हो सकता है, क्योंकि आपसी वैवाहिक सहमति और अनुबंध के तहत पत्नी द्वारा अपने आप को, इस प्रकार से अपने पति को सौंप दिया जाता है, जिससे वह स्वयं वापस नहीं हट सकती है।”
- इसके बाद से, इस अपवाद को इंग्लैंड सहित कई न्यायालयों में इस्तेमाल किया जाता रहा है। हालाँकि इंग्लैंड के उच्च सदन ‘हाउस ऑफ लॉर्ड्स’ में वर्ष 1991 में, विवाह को ‘बराबरी की साझेदारी’ के रूप में घोषित कर दिया गया था और ‘पत्नी को पति की अधीनस्थ संपत्ति’ माने जाने संबंधी विचार को खारिज कर दिया गया।
साथ ही, विश्व बैंक के अनुसार, नेपाल सहित कम से कम 78 देशों में, विशेष रूप से ‘वैवाहिक बलात्कार’ को अपराध घोषित करने वाले कानून लागू हैं।
इस संबंध में विधिक प्रावधान:
वर्तमान में ‘वैवाहिक बलात्कार’ को ‘हिंदू विवाह अधिनियम’, 1955, ‘मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) अधिनियम’, 1937 ( Muslim Personal Law (Shariat) Application Act, 1937) और ‘विशेष विवाह अधिनियम’, 1954 में तलाक का आधार नहीं माना जाता है, और इसे तलाक अथवा पति के खिलाफ क्रूरता का मामला दर्ज करने के आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
- आईपीसी की धारा 375 के अनुसार, “यदि पत्नी की आयु 15 वर्ष से कम नहीं है तो, अपनी पत्नी के साथ एक पुरुष द्वारा संभोग करना, बलात्कार नहीं है”।
- किसी अन्य क़ानून या विधान में ‘वैवाहिक बलात्कार’ को मान्यता नहीं दी गयी है।
- पीड़ितों के पास ‘घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम’, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005) के तहत प्रदान किए गए नागरिक उपचार का ही सहारा होता है।
वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित किए जाने की आवश्यकता:
- कई अध्ययनों के अनुसार, अपनी पत्नियों के साथ गैर-सहमति से यौन संबंध बनाना और शारीरिक रूप से अपनी पत्नियों को यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करना एक आम बात पायी गयी है।
- विवाह एक ‘समान-संबंधों’ का अनुबंध होता है, और यह हर चीज के लिए एक बार में ही प्रदान की गयी सहमति नहीं है।
- कानून में ‘पति को बलात्कार करने की दी गयी विधिक छूट’ पुरुषों को असमान विशेषाधिकार प्रदान करती है।
- वैवाहिक बलात्कार से पीड़ित महिलाओं को दीर्घ-गामी मनोवैज्ञानिक चोट झेलनी पड़ती है।
- धारा 375 के तहत अपवाद, महिला को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक प्रकृति से पुरुषों के दिमाग में यह बात बस जाती है, कि महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि जब उनके पति सेक्स की मांग करें तो वे इसका पालन करें।
- वैवाहिक बलात्कार से पीड़ित महिला को शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ता है, साथ ही उसकी मर्यादा भंग होने का मानसिक आघात भी सहना पड़ता है।
- पिछले 70 वर्षों में आईपीसी की धारा 375 में दिए गए इस अपवाद को कभी भी छेड़ा नहीं गया है।
- बाल विवाह का प्रचलन और कई मामलों में महिलाओं की जबरन शादी, समाज में आम बात है।
‘वैवाहिक बलात्कार’ को अपराध घोषित करने के विपक्ष में तर्क:
- ‘वैवाहिक बलात्कार’ (Marital Rape) को अपराध घोषित किया जाना, “पति को परेशान करने का एक आसान साधन होने के अलावा विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकता है”।
- दहेज कानून के रूप में जाना जाने वाली ‘आईपीसी की धारा 498A’ का दुरुपयोग “पतियों को परेशान करने के लिए” किया जाता है।
- अन्य देशों, ज्यादातर पश्चिमी देशों द्वारा ‘वैवाहिक बलात्कार’ को अपराध घोषित किया जा चुका है, इसका मतलब यह नहीं है कि आँख बंद करके उनका अनुसरण करते हुए भारत को भी ऐसा करना चाहिए।
- ‘बलात्कार कानूनों की समीक्षा हेतु गठित विधि आयोग’ ने इस मुद्दे की जांच की है, और वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण किए जाने के संबंध में कोई सिफारिश नहीं की है।
- जो यौन संबंध पत्नी के लिए ‘वैवाहिक बलात्कार’ प्रतीत हो सकते हैं, हो सकता है कि वह दूसरों को ऐसा नहीं लगे।
- पुरुष और उसकी अपनी पत्नी के मध्य यौन-कार्यों के मामले में कोई स्थायी सबूत नहीं मिल सकता है।
स्रोत: द हिंदू।
सामान्य अध्ययन-III
विषय: आपदा और आपदा प्रबंधन।
छठवां सामूहिक विलोपन
संदर्भ:
एक नए शोध के अनुसार, वर्तमान में जारी ‘छठवां सामूहिक विलोपन’ (Sixth Mass Extinction) सभ्यता के अस्तित्व के लिए सबसे गंभीर पर्यावरणीय खतरों में से एक साबित हो सकता है।
किसी समय पृथ्वी पर दो मिलियन ज्ञात प्रजातियाँ पायी जाती थीं। अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1500 के बाद, इनमें से लगभग 7.5% -13% प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं। नष्ट हो चुकी विभिन्न प्रजातियों की संख्या लगभग 150,000 से 260,000 के बीच है।
‘प्रजातियों का सामूहिक विलोपन’ क्या है?
- ‘सामूहिक विलोपन’ (mass extinction) का तात्पर्य, प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में महत्वपूर्व वृद्धि होने अथवा एक अल्प भू-गार्भिक अवधि के दौरान पृथ्वी की तीन-चौथाई से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो जाने से है।
- अब तक, पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास में, सामूहिक विलोपन की पांच घटनाएँ हो चुकी हैं।
कारण और प्रभाव:
- पिछले 450 मिलियन वर्षों में हुई ‘सामूहिक विलोपन’ की पांच घटनाएं, पूर्व में पाए जाने वाले पौधों, जंतुओं और सूक्ष्मजीवों की 70-95 प्रतिशत प्रजातियों के विनाश का कारण बनीं।
- इन विलोपन की घटनाओ का कारण, ज्वालामुखी विस्फोट, समुद्री ऑक्सीजन की कमी अथवा क्षुद्रग्रह के साथ टकराव आदि जैसे पर्यावरण में हुए ‘विनाशकारी परिवर्तन’ माने जाते हैं।
- प्रत्येक विलोपन के बाद, प्रजातियों को फिर उत्पन्न एवं विकसित होने में लाखों साल का समय लग जाता है।
‘छठवां सामूहिक विलोपन’ क्या है?
- वर्तमान में जारी, छठे सामूहिक विलोपन को ‘एंथ्रोपोसीन’ (Anthropocene) विलोपन के रूप में जाना जाता है।
- शोधकर्ताओं ने इसे ‘सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्या’ के रूप में व्यक्त किया है क्योंकि इस विलोपन प्रजातियों का हानि स्थायी होगी।
इसके लिए मानव क्यों उत्तरदायी है?
- अपनी बढ़ती आबादी के कारण मानव, कई जीवित प्रजातियों के लिए एक ‘अभूतपूर्व खतरा’ है।
- मानव पूर्वजों द्वारा 11,000 वर्ष पूर्व कृषि का विकास करने के पश्चात से, प्रजातियों का नष्ट होना जारी है। उस समय से लेकर अबतक मानव आबादी में लगभग 1 मिलियन से 7 बिलियन तक की वृद्धि हो चुकी है।
इस दौरान होने वाले परिवर्तन:
- पिछली सदी में, पृथ्वी पर पायी जाने वाली 400 से अधिक कशेरुकी प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं।
- पिछले 100 वर्षों के दौरान, दीर्घाकार स्तनधारियों की 177 प्रजातियों में से, अधिकांश प्रजातियों के 80 प्रतिशत से अधिक भौगोलिक वास-स्थान नष्ट हो चुके हैं तथा 27,000 से अधिक कशेरुक प्रजातियों में से 32 प्रतिशत प्रजातियों की आबादी घटती जा रही है।
- वर्तमान में लुप्तप्राय या विलुप्त होने की कगार पर पहुच चुकी कई प्रजातियां, वैध तथा अवैध वन्यजीव व्यापार की वजह से नष्ट होती जा रही हैं।
- स्तनधारियों की कई प्रजातियां, जैसे, चीता, शेर और जिराफ, जो एक या दो दशक पहले अपेक्षाकृत सुरक्षित थीं, वे अब लुप्तप्राय हो चुकी हैं। वन्य क्षेत्रों में शेरों की संख्या मात्र 20,000 से भी कम, चीतों की आबादी मात्र 7,000 से भी कम, विशाल पांडा की संख्या 500 से 1,000 तथा सुमात्रा गैंडो की संख्या लगभग 250 बची है।
संवेदनशील क्षेत्र (Vulnerable regions):
- उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में प्रजातियों की संख्या सबसे अधिक कमी देखी गई है। दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में, बड़े आकार की स्तनधारियों प्रजातियों का चार से पांचवां भाग नष्ट हो चुका है।
- समशीतोष्ण क्षेत्रों में नष्ट होने वाली प्रजातियों की संख्या अपेक्षाकृत कम रही है, किंतु नष्ट होने का प्रतिशत ‘उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों’ के बराबर अथवा उससे अधिक ही रहा है।
एक समय हमारे ग्रह पर पाए जाने वाले जीवों में आधे से अधिक अब मौजूद नहीं हैं। इस नुकसान को “पृथ्वी के इतिहास में सर्वाधिक विशाल जैविक विविधता का भारी क्षरण” के रूप में वर्णित किया जाता है।
प्रजातियों के विलुप्त होने का प्रभाव:
- प्रजातियों के विलुप्त होने का प्रभाव, फसल परागण प्रकिया तथा ‘जल शोधन’ क्षमता में में कमी के रूप में परिलक्षित हो सकता है।
- यदि कोई प्रजाति, पारिस्थितिक तंत्र में कोई विशिष्ट कार्य करती है, और ऐसे में इस प्रजाति के नष्ट हो जाने से खाद्य श्रृंखला पर प्रभाव पड़ेगा, जिसका अन्य प्रजातियों पर हानिकारक परिणाम पड़ सकता है।
- आने वाले दशकों में इस विलोपन होने के प्रभाव और भी खराब होंगे, क्योंकि परिणामी आनुवंशिक और सांस्कृतिक परिवर्तनशीलता से पूरा पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन होगा।
- जब किसी आबादी या प्रजाति में सदस्यों की संख्या बहुत कम हो जाती है, तो पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों और सेवाओं में इसका योगदान महत्वहीन हो जाता है तथा इसकी आनुवंशिक परिवर्तनशीलता और लचीलापन भी कम हो जाता है, जिससे मानव कल्याण में इसका योगदान समाप्त हो सकता है।
प्रीलिम्स लिंक:
- सामूहिक विलोपन क्या है?
- पूर्व में हुए विलोपन के लिए उत्तरदायी कारक
- छठा सामूहिक विलोपन के लिए उत्तरदायी कारक
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
प्रारम्भिक परीक्षा हेतु तथ्य
नेट जीरो बिल्डिंग
‘नेट जीरो बिल्डिंग’ (net-zero energy building), अपने उपयोग के अनुरूप ऊर्जा उत्पादन करने हेतु अक्षय स्रोतों पर निर्भर ‘भवन’ (Building) होते हैं। आमतौर पर इसके लिए एक वर्ष के दौरान किए गए ऊर्जा उत्पादन को मापा जाता है।
- अपने उपयोग के लिए पर्याप्त ऊर्जा का उत्पादन करने वाले मकानों तथा अन्य संरचनाओं को भी कभी-कभी ‘नेट जीरो बिल्डिंग’ कहा जाता है।
- इस प्रकार के भवनों द्वारा उत्पादित अतिरिक्त ऊर्जा को विद्युत ग्रिड में वापस भेजा जा सकता है।
नेट-जीरो ऊर्जा भवनों का निर्माण ‘ऊर्जा संसाधनों’ को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किया जाता है। इन भवनों में कई सुविधाएँ बगैर किसी ऊर्जा स्रोत के काम करती हैं। उदाहरण के लिए:
- शीत जलवायु के क्षेत्रों में, दक्षिण दिशा की तरफ बड़े आकार की खिड़कियों वाली इमारतों में किसी अन्य सुविधा का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं होती है, और इनमे स्वतः ही सौर-प्रकाश के माध्यम से गर्मी उत्पन्न करने की क्षमता होती है।
- इमारत के ठंडे उत्तर की ओर, छोटी खिड़कियां लगायी जाती है, जोकि प्रकाश की अधिक मात्रा के आगमन तथा ऊष्मा की अल्प मात्रा के निर्गमन के अनुकूल होती हैं।
- उष्ण मौसम में, धीमा वेंटिलेशन सिस्टम, निचली सतह से ठंडी हवा को ऊपर खींच सकते हैं और इसे इमारत के उच्चतम बिंदु से बाहर निकाल सकते हैं।
- इन इमारतों में लगे ‘रूफटॉप सिस्टम’, उपचारित पानी का कम उपयोग करने के लिए वर्षा जल एकत्र कर सकते हैं।
कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव्स कमीशन
यूनाइटेड किंगडम स्थित ‘कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव्स कमीशन’ (Commonwealth War Graves Commission – CWGC) ने असामान्य विशेषताओं वाली पांच साइटों को सूचीबद्ध किया है। ये स्थल प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध से जुड़े हुए हैं।
- इन सूचीबद्ध स्थानों में नागालैंड का ‘कोहिमा युद्ध कब्रिस्तान’ भी शामिल है।
- ‘कोहिमा युद्ध कब्रिस्तान’ मित्र देशों की सेना के दूसरे ब्रिटिश डिवीजन के सैनिकों को समर्पित एक स्मारक है। ये सैनिक द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अप्रैल 1944 में कोहिमा में मारे गए थे।
- CWGC द्वारा सूचीबद्ध अन्य असाधारण स्थलों में, फ्रांस में पास डी कैलाइस क्षेत्र में स्थित ‘प्रथम विश्व युद्ध का “क्रेटर कब्रिस्तान” – ज़िवी क्रेटर और लिचफील्ड क्रेटर भी शामिल है। इस क्षेत्र में जमीनों सुरंगो के विस्फोटों की वजह से क्रेटर बन गए थे।
- सूचीबद्ध स्थलों में, साइप्रस का निकोसिया (वेन्स कीप) कब्रिस्तान या “कब्रिस्तान इन नो मैन्स लैंड” भी शामिल है, इस जगह पर सशत्र सैनिक तैनात रहते है। क्योंकि, यह कब्रिस्तान 1970 के दशक से द्वीप के दक्षिणी और उत्तरी हिस्सों के बीच विवादित भूमि के एक हिस्से की सीमा पर बना हुआ है।
CWGC के बारे में:
- ‘कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव्स कमीशन’ (CWGC), छह सदस्य-राष्ट्रों का एक अंतर-सरकारी संगठन है, जो यह सुनिश्चित करता है कि युद्ध में मारे गए पुरुषों और महिलाओं को कभी नहीं भुलाया जाएगा।
- आयोग की स्थापना ‘सर फैबियन वेयर’ द्वारा की गई थी और 1917 में शाही चार्टर के माध्यम से ‘इंपीरियल वॉर ग्रेव्स कमीशन’ के रूप में गठित किया गया था।
- सदस्य: ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, भारत, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका और यूनाइटेड किंगडम।
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